Friday, 24 October 2014
उद्बोधन:-----------
अंधकार में कितने अबतक, मंगलदीप जलाये मैंने ?
कितनी रोती आँखों के , दु:ख अश्रु पोंछें मैंने ?
कितने गिरते दीन जनों को , दिया सहारा स्वयं दौड़कर ?
कितनी मेट सका हूँ दूरी , सबको अपना बन्धु बनाकर ?
मैं सबमें हूँ , सब हैं मुझमें , मैं सबका हूँ,सब हैं मेरे ।
साम्य योग के उक्त मंत्र से, तोड़ सका हूँ कितने घेरे ?
- राष्ट्र सन्त गुरूदेव उपाध्याय अमरमुनि जी द्वारा रचित -
Monday, 20 October 2014
अहिंसा दर्शन :--------
जैन - धर्म दृढ़तापूर्वक कहता है कि वह मैल आत्मा पर लगा हुआ होता है।अत: दुनियाभर के तीर्थों में क्यों भटका
जाए ? सबसे बड़ा तीर्थ तो अपनी आत्मा ही होती है,क्योंकि उसी में अहिंसा और प्रेम की निर्मल धाराएॅ बहती हैं। उसमें ही डुबकी
लगा लेने से पूर्ण शुद्धता प्राप्त होती है। जहाँ अशुद्धि है, वहाँ की ही तो शुद्धि करनी है। जैन दर्शन बड़ा आध्यात्मिक दर्शन है, और
वह इतना ऊँचा भी है वह मनुष्य को मनुष्यत्व के अन्दर बन्द करता है । मनुष्य की दृष्टि मनुष्य में डालता है। अपनी महानता अपने
ही अन्दर तलाश करने को कहता है ।
व्यक्ति अपना कल्याण करना चाहता है, किन्तु प्रश्न उठता है कि कल्याण करें भी तो कहाँ करें? यहाँ पर जैन -
धर्म स्पष्टत: कहता है कि - जहाँ तुम हो,वहीं पर,बाहर किसी गंगा या और किसी नदी पहाड़ में नहीं । आत्म कल्याण के लिय,जीवन
शुद्धि के लिए या अन्दर में सोए हुए भगवान को जगा ने के लिए एक इंच भी इधर उधर जाने की ज़रूरत नहीं है। तू जहाँ है ,वहीं
जाग जा और आत्मा का कल्याण कर ले ।
Wednesday, 15 October 2014
स्मृतियाँ :--------
ओ निर्मम पाषाण हृदय ------
देखता हूँ कब तलक,तुम मौन एेसे रह सकोगी ।
कब तलक उर की व्यथा को,तुम अकेली सह सकोगी ।।
'और अपने से सदा ही रूठते' जंग का नियम है ।
रूठ कर भी याद कर लेती मुझे,क्या देवि कम है ।।
मौन रूठे मीत ! तुमको आज में,अपना बनाना चाहता हूँ ।
मूक अन्तर में तुम्हारे प्यार का दीपक जलाना चाहता हूँ ।।
नीड़ में अपना बसाना चाहता हूँ,तुम्हें किस नाम से पुकारू ?
यह शब्द- निर्धन व्यक्ति तुम्हें उपयुक्त शब्द भी तो भेंट नहीं कर सकता,फिर यह मसिपात्र
और हृदय दोनों ही तो स्याह रंग के हैं ।तुम्हारे लिये पाक एवं मृदु शब्द कहाँ से लाऊँ ।मुझ
जैसे नादान वेबस के पास तो भट्टी के अँगारों जैसे कर्कश शब्दों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं
जिनको कि मैं पद्य की प्रथम पंक्ति म ें ही भेंट कर चुका हूँ ।
जगदीश प्रसाद जैन
Sunday, 21 September 2014
जैन धर्म को जानिये:---
जैन धर्म विश्व का एक महान धर्म है।इसकी आधार शिला भौतिक विजय पर नहीं ,आध्यात्मिक विजय पर है।यह बाहर
का धर्म नहीं,अन्दर में आत्मा का धर्म है।अधिक गहराई में जाकर केवल "जैन" शब्द पर विचार करें तो इस सत्य का मर्म स्पष्ट
हो सकता है।
जैन का अर्थ है "-जिन" को मानने वाला ।जो जिन को मानता हो,जिन की भक्ति करता हो,जिन की आज्ञा में चलता हो
और जो अपने अन्दर में जिनत्व के दर्शन करता हो,जिनत्व के पथ पर चलता हो,वह जैन कहलाता है ।
Wednesday, 25 June 2014
उद्बोधन - प्रात: स्मरणीय ब्रह्मनिष्ट पूज्यपाद राष्ट्रसंत श्रद्धेय श्री अमरमुनि जी महाराज़ द्वारा:--------
नई चेतना,नई स्फूर्ति से, नये कर्म का पथ अपनाओ ।
मरने पर क्या जीते जी हो, स्वर्ग धरा पर ला दिखलाओ ।।
अन्धकार में भटक रहे जन, तुम प्रकाश बन जाओ ।
ठोकर खाते पथ भ्रष्टों को , सत्य मार्ग दिखलाओ ।।
औरों का गुण- दोष देखना, कौन भला है कौन बुरा है ।
पर अपने में झाँक न पाया, ख़ुद अच्छा है या कि बुरा है।।
औरों के दोषों को गिन गिन, रख छोड़ा है अपने मन में ।
अपने दोषों को ढक रक्खा, नक़ली फूलों के उपवन में ।।
कर्म क्षेत्र के धन्य वीर वे, जो पहले आगे आते हैं ।
पीछे तो लाखों अनुयायी , बिना बुलाये आ जाते हैं।।
अब किसके इन्तज़ार में हो,आगे बढ़ो एक दूसरे का,
हाथ थाम लो टूटती कडिं़या फिर जुड़ जावेगीं ।।
अखिल धरा यह महावीर की,इसमें देश विदेश नहीं ।
गूँजे करूणा और क्षमा- स्वर,मानव उर में सभी कहीं ।।
Sunday, 22 June 2014
कर्म ही पूजा है:----
श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:----
" कर्मण्येवाधिकारन्ते माँ फलेषु कदाचन् " मैंने आपको सतत निष्काम भाव से कर्म करते देखा है ।
आपके जीवन का उसूल है कि मुझसे अधिक से अधिक ग़रीबों का उपकार हो।
हिन्दी भाषा के विख्यात राष्ट्रीय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने उप्रोक्त पंक्तियों निम्नप्रकार से मूर्तिरूप किया है:----
" वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे "
इसको दूसरे रूप में कह सकते हैं :-- " बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय "
संकलनकर्ता:-- जगदीश प्रसाद जैन
Friday, 20 June 2014
स्मृतियाँ :----------
तू एकाकिनी मैं एकाकी, फिर कैसा शर्माना ।
मेरा तेरा नाता जन्म जन्म का चिर पहचाना ।।
तू तो मुझसे रूठ नहीं ,यह सारी दुनिया रूठी ।
आ मेरे प्राणों की छाया,तुमको आज मनालू । ।
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मेरे सूने अम्बर पर तुम, पावस घन बनकर घिर आओ ।
मुरझाऐ सुख के बादल पर, अमृत के सीकर बरसाओ ।।
तुमको देते हैं आमन्त्रण , मेरे आतुर उर के स्पन्दन ।
बिछड़े मन में,फिर मिलने का विश्वास सिहरता आता है,
तुम आती हो तो जीवन में मधुमास विखरता आता है ।।
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जगदीश प्रसाद जैन
Wednesday, 18 June 2014
स्मृतियाँ :----------
" तुम मेरे गीतों की परछाईं सी, दिन भर सुधियों के संग संग फिरती हो ।
निद्रित नयनों की स्वरगंगा में तुम , सपनों की स्वर्ण तरी सी तिरती हो ।।
" युगों के बाद मधुरे, फिर तुम्हारा मौन बोला है ,
हमारे भी अचानक आज अधरों पर हँसी आई ।
तिमिर के सिन्धु में सहसा रजत आलोक छाया है,
विरह के शून्य नन्दन में मिलन मधुमास आया है।
तुम्हारे रूप की छाया दृगों में मूक शरमाई ,
युगों के बाद मधुरे, तुम्हारा मौन बोला है ,
हमारे भी अचानक आज अधरों पर हँसी आई ।।"
जगदीश प्रसाद जैन
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Tuesday, 22 April 2014
जैन धर्म के महामंत्र की आरती:--
ऊँ जय अरिहंताणं, स्वामी जय अरिहंताणं ।भाव भक्ति से नित्य प्रति, प्रणमूँ सिद्धाणं ।। टेर ।।
दर्शन ज्ञान अनन्ता, शक्ति के धारी, स्वामी ! यथा ख्यात- समकित हैं, कर्म शत्रु हारी ।।१।।(ऊँ जय)
है सर्वज्ञ- सर्वदर्शी-बल, सुख अनन्त पाये, स्वामी ! अगुरू लघु - अमूरत, अव्यय कहलाये।।२।।(ऊँ जय)
नमो अायरियाणं, छत्तीस गुण पालक, स्वामी ! जैन धर्म के नेता ! संघ के संचालक ।।३।। (ऊँ जय)
नमो उवज्झा़याणं , चरण करण ज्ञाता, स्वामी ! अंग उपांग पढ़ाते ज्ञान दान दाता ।।४ ।। (ऊँ जय)
नमो लोए सव्वसाहूणं , ममता- मद हारी, स्वामी ! सत्य अहिंसा- अस्तेय ब्रह्मचर्य धारी ।।५ ।।(ऊँ जय)
'चौथमल' कहे शुद्ध मन जो नर ध्यान धरे, स्वामी ! पावन पंच सरमेष्टी, मंगलाचार करे ।।६।। (ऊँ जय)
दर्शन ज्ञान अनन्ता, शक्ति के धारी, स्वामी ! यथा ख्यात- समकित हैं, कर्म शत्रु हारी ।।१।।(ऊँ जय)
है सर्वज्ञ- सर्वदर्शी-बल, सुख अनन्त पाये, स्वामी ! अगुरू लघु - अमूरत, अव्यय कहलाये।।२।।(ऊँ जय)
नमो अायरियाणं, छत्तीस गुण पालक, स्वामी ! जैन धर्म के नेता ! संघ के संचालक ।।३।। (ऊँ जय)
नमो उवज्झा़याणं , चरण करण ज्ञाता, स्वामी ! अंग उपांग पढ़ाते ज्ञान दान दाता ।।४ ।। (ऊँ जय)
नमो लोए सव्वसाहूणं , ममता- मद हारी, स्वामी ! सत्य अहिंसा- अस्तेय ब्रह्मचर्य धारी ।।५ ।।(ऊँ जय)
'चौथमल' कहे शुद्ध मन जो नर ध्यान धरे, स्वामी ! पावन पंच सरमेष्टी, मंगलाचार करे ।।६।। (ऊँ जय)
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