देखता हूँ कब तलक,तुम मौन एेसे रह सकोगी ।
कब तलक उर की व्यथा को,तुम अकेली सह सकोगी ।।
'और अपने से सदा ही रूठते' जंग का नियम है ।
रूठ कर भी याद कर लेती मुझे,क्या देवि कम है ।।
मौन रूठे मीत ! तुमको आज में,अपना बनाना चाहता हूँ ।
मूक अन्तर में तुम्हारे प्यार का दीपक जलाना चाहता हूँ ।।
नीड़ में अपना बसाना चाहता हूँ,तुम्हें किस नाम से पुकारू ?
यह शब्द- निर्धन व्यक्ति तुम्हें उपयुक्त शब्द भी तो भेंट नहीं कर सकता,फिर यह मसिपात्र
और हृदय दोनों ही तो स्याह रंग के हैं ।तुम्हारे लिये पाक एवं मृदु शब्द कहाँ से लाऊँ ।मुझ
जैसे नादान वेबस के पास तो भट्टी के अँगारों जैसे कर्कश शब्दों के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं
जिनको कि मैं पद्य की प्रथम पंक्ति म ें ही भेंट कर चुका हूँ ।
जगदीश प्रसाद जैन
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