Saturday, 31 August 2013
Wednesday, 7 August 2013
Monday, 5 August 2013
प्राथना और सेवा -----------
प्राथना हमारे भीतर का एक एेसा अनूठा भाव है,जो उनलोगों के शुख शान्ति और कल्याण के लिए जगता है,जो लोग हमारी
ज़िन्दगी के दायरे से संबन्धित नहीं हैं । हमारी सोच,हमारी कल्पना,हमारी कामनाओं से भी दूर है , उनकी सुख शान्ति चाहना
बहुत श्रेष्ठ भाव है ।
और सेवा ? सेवा भी प्राथना जैसा ही श्रेष्टतम भाव है जो सक्रिय होकर उन तक पहंुचता है , जो हमारे जीवन
के निकट है,हमसे सम्बन्घित है ओर हमारे आस पास है ।उन्हें ऊँचा उठाने के लिए रचनात्मक रूप से सहयोगी बनता है ।
सेवा का पवित्र भाव हमें संवेदनशील बनाता है ।हमें उस तरफ़ ले जाता है जहाँ हमारी शक्ति का सही उपयोग होता है । दूसरी
ओर सेवा भाव हमारे जीवन की विसंगतियों को दूर करता है ।हमें उसके अभिमुख करता है ,जिसकी हम प्राथना करते हैं ।
संक्षेप में कह सकते हैं ,सेवा जगत और जगदीश्वर से जोड़ने वाला सेतु है ।
ज़िन्दगी के दायरे से संबन्धित नहीं हैं । हमारी सोच,हमारी कल्पना,हमारी कामनाओं से भी दूर है , उनकी सुख शान्ति चाहना
बहुत श्रेष्ठ भाव है ।
और सेवा ? सेवा भी प्राथना जैसा ही श्रेष्टतम भाव है जो सक्रिय होकर उन तक पहंुचता है , जो हमारे जीवन
के निकट है,हमसे सम्बन्घित है ओर हमारे आस पास है ।उन्हें ऊँचा उठाने के लिए रचनात्मक रूप से सहयोगी बनता है ।
सेवा का पवित्र भाव हमें संवेदनशील बनाता है ।हमें उस तरफ़ ले जाता है जहाँ हमारी शक्ति का सही उपयोग होता है । दूसरी
ओर सेवा भाव हमारे जीवन की विसंगतियों को दूर करता है ।हमें उसके अभिमुख करता है ,जिसकी हम प्राथना करते हैं ।
संक्षेप में कह सकते हैं ,सेवा जगत और जगदीश्वर से जोड़ने वाला सेतु है ।
Sunday, 28 July 2013
A New Experience at "MONTEREY BAY" at California in U.S.
My wife and I along with my younger daughter Gauri & her husband Sri Vivek Agarwal & both her
Children had taken a trip to Monterey Whale ( Humpback Whale ) Watch on 11th August,
2011 at Monterey Bay to observe the spectacular diversity and abandance of Whales and
Dolphins inhabiting the Bay.
The Monterey is the best place in the USA to view a variety of Marine Mammals and seabirds.
My Boat Driver (Captain) John Skipper was a old man with 30 years Experience ,who fully narrates excellent views of Marine Wildlife.My most skilled Captain knew where to find Humpback Whales and how to approach them. He merely with a quick glimpse of a
Humpback Whale of above 55 Tons of weight and about 50 Ft. Long, drove us 10 kms
inside the Monterey Sea. Thats why we were considered the best of the Whale Watches in the Monterey Bay.
By Jagdish Prasad Jain .
Children had taken a trip to Monterey Whale ( Humpback Whale ) Watch on 11th August,
2011 at Monterey Bay to observe the spectacular diversity and abandance of Whales and
Dolphins inhabiting the Bay.
The Monterey is the best place in the USA to view a variety of Marine Mammals and seabirds.
My Boat Driver (Captain) John Skipper was a old man with 30 years Experience ,who fully narrates excellent views of Marine Wildlife.My most skilled Captain knew where to find Humpback Whales and how to approach them. He merely with a quick glimpse of a
Humpback Whale of above 55 Tons of weight and about 50 Ft. Long, drove us 10 kms
inside the Monterey Sea. Thats why we were considered the best of the Whale Watches in the Monterey Bay.
By Jagdish Prasad Jain .
Wednesday, 10 July 2013
प्रात: स्मरणीय ब्रह्मनिष्ट पूज्यपाद राष्टसंत श्रद्धेय गुरूदेव अमरमुनि जी का परिचय:-
हरियाणा राज्य के नारनौल जनपद में "गोधा" एक छोटा सा सुन्दर गाँव है।इस पावन भूमि "गोधा" में पूज्य गुरूदेव
उपाध्याय अमरमुनि महाराज का जन्म सन १९०३ई. शरद् पूर्णिमा को हुआ था।आपके माता पिता धार्मिक प्रवृति के,सदाचार
एवं सुसंस्कार के अाग्रही,साधु सन्तो के प्रति अपूर्व श्रद्धा भाव से समर्पित रहे। माता पिता के धर्मपरायणता और सदगुणों का
गहरा प्रभाव बालक अमरसिंह पर पड़ा।
नारनौल सनातन धर्मावलम्बियों तथा आर्य समाज का प्रमुख केन्द्र था। जैन संत भी यदा कदा आया करते थे।संयोग से
एक बार पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज (दादा गुरू) और जैन संत पूज्य पृथ्वीचन्द्र जी महाराज (गुरू)नारनौल पधारे।बालक
अमर सिंह अपने पिता जी के साथ महाराजश्री के दर्शनार्थ आये ।भविष्यदर्शी पूज्य मोतीराम जी महाराज बालक के दिव्य
आभामंडल से अभिभूत हुए। उन्होंने पिता श्री लाल सिंह जी से कहा- इस दिव्य ज्योति ने विश्व कल्याण हेतु जन्म लिया है ।
नररत्न पारखी मुनिद्व़य के श्री चरणों में पिता ने बालक को अर्पण किया ।बालक अमर ने अपने सदव्यवहार,अपनी ज्ञान पिपासा,
अपनी निश्छल मंत्र-मुग्ध वाणी से गुरू एवं दादा गुरू को मोहित करते हुए अमर होने के लिए अपनी अमर यात्रा प्रारंभ की।
मुज़फ़्फ़रनगर स्थित गंगेरू गाँव की पावन धरा पर विक्रम संवत १९७६ माघ शुक्ला दशमी के मंगलमय दिन माता पिता एवं
परिवार के साथ गुरूवरों के आशीर्वाद एवं हज़ारों भाई बहनों की शुभकामनाओं के साथ तेजस्वी किशोर"अमर सिंह" प्रव्रजित
होकर " अमर मुनि " बन गया।श्वेत परिधान में उनकी मुखाकृति अद्भुत तेज से तेजोमय हो उठी।अब अध्ययन का क्रम और तेज
हो गया।अनेक शास्त्र एक के बाद एक कण्ठस्थ कर लिए,किन्तु साहित्य तथा भाषा के संबन्ध में अध्ययन नहीं हुआ था ।
अत:किशोर अवस्था में संन्यास लेकर क्रान्ति का शंखनाद किया।प्रचलित परम्परा को पार करके संस्कृत पाठशाला में जाकर
संस्कृत भाषा का अध्ययन किया ।साम्प्रदायिकता के विद्वेष को ख़त्म करने के लिए सादड़ी भीनासर,सोजत अजमेर आदि
क्षेत्रों में सम्मेलनों का आयोजन कराकर साम्प्रदायों का विलीनीकरण किया।उपेक्षित साध्वी-वर्ग,महिलाओं बालिकाओं की
शिक्षा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया ।
वर्ष १९५० में स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा़़.राजेन्द्र प्रासाद ने गुरूदेव को राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित किया था।दो घण्टे तक
अहिंसा के व्यावहारिक रूप,बिहार की गौरवमयी परम्परा,भारतीय इतिहास आदि विषयों पर गम्भीर चर्चा हुई।वर्ष १९७० में
दीक्षा-स्वर्ण जयंति समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्रद्धा- भाव अर्पण करते हुए उन्हे "राष्टसंत" की
उपाधि से अलंकृत किया ।
मातृजाति के उत्थान एवं स्त्री-शिक्षा के लिए उदात्त दृष्टिकोण रहा।स्त्री -शक्ति का सम्मान केवल प्रवचन लेखन तक ही सीमित न
था,अपितु गौरव गरिमा हेतु सक्रिय रचनात्मक क़दम भी उठाए ।गुरूदेव ने वह कार्य किया,जो पिछले २५ शताब्दियों में नहीं हुआ ।इतिहास का नया अध्याय ही है कि साध्वी चन्दनाश्रीजी का उनकी ज्ञान,कर्म एवं करूणा की तेजस्वी सृजनशील शक्ति
एवं जनमंगल के कार्यों का सम्मान करते हुए,आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।आचार्य श्री चन्दनाश्रीजी के क्रान्तिकारी विचारों
एवं कर्मक्षेत्र "वीरायतन" के लिए उन्होंने मुक्तमन से आशीर्वाद बरसाये और स्वयं बर्ष १९७४ में क्षेत्रीय सुविधाओं को छोड़कर
राजगृही आए। महावीर एवं बुद्ध की तीर्थ भूमि राजगृही का यह वैभारगिरि पर्वत,सप्तपर्णी गुफ़ा पूज्य गुरूदेव के १९ वर्ष के ज्ञान
तप- साधना से तपोपूत पावन है।यहाँ का कण कण आपके जीवन का संगान कर रहा है। प्रणम्य चरणों में प्रणाम करते हुए जून
१९९१ के सू्र्यास्त के समय गुरू की उस प्रकाशपू्र्ण देह- ज्योति को अपने में समा लिया है और आज वे सब हमें पूज्य गुरूदेव
की विश्वशान्ति हेतु आशीर्वाद बरसाती ज्ञान-रश्मियों को प्रसारित करती मुद्राओं में तरंगायित होते हुए उनकी अनुभूति कराते हैं।
हम चरण स्पर्श करते हैं और उनके आशीर्वाद के वरदहस्त का दिव्य स्पर्श पाते हैं ।पूज्य गुरूदेव का जीवन साहित्यिक सृजन-
शीलता से तन्मय जीवन रहा है ।वे निष्काम मनस्वी संत,महान चिन्तक और महान साहित्यकार रहे।प्राचीन तीनों धर्म परम्पराओं
के मूल स्रो्त आगम,त्रिपिटक और वेदों से अनुप्राणित हो उन्होने अपनी लेखनी को नई दिशा दी ।पूज्य गुरूदेव राष्टसंत उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज जिन्हें पाकर बीसवीं सदी में जैन परम्परा के नवजागरण का नया सोपान धन्य और कृतकृत्य हुआ।अनिर्वचनीय है यह सब! हे प्रणम्य !कोटिश:प्रणाम ! हे वन्दनीय ! अहर्निश वन्दन !
आभार उपाध्याय साध्वी यशा जी ।
उपाध्याय अमरमुनि महाराज का जन्म सन १९०३ई. शरद् पूर्णिमा को हुआ था।आपके माता पिता धार्मिक प्रवृति के,सदाचार
एवं सुसंस्कार के अाग्रही,साधु सन्तो के प्रति अपूर्व श्रद्धा भाव से समर्पित रहे। माता पिता के धर्मपरायणता और सदगुणों का
गहरा प्रभाव बालक अमरसिंह पर पड़ा।
नारनौल सनातन धर्मावलम्बियों तथा आर्य समाज का प्रमुख केन्द्र था। जैन संत भी यदा कदा आया करते थे।संयोग से
एक बार पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज (दादा गुरू) और जैन संत पूज्य पृथ्वीचन्द्र जी महाराज (गुरू)नारनौल पधारे।बालक
अमर सिंह अपने पिता जी के साथ महाराजश्री के दर्शनार्थ आये ।भविष्यदर्शी पूज्य मोतीराम जी महाराज बालक के दिव्य
आभामंडल से अभिभूत हुए। उन्होंने पिता श्री लाल सिंह जी से कहा- इस दिव्य ज्योति ने विश्व कल्याण हेतु जन्म लिया है ।
नररत्न पारखी मुनिद्व़य के श्री चरणों में पिता ने बालक को अर्पण किया ।बालक अमर ने अपने सदव्यवहार,अपनी ज्ञान पिपासा,
अपनी निश्छल मंत्र-मुग्ध वाणी से गुरू एवं दादा गुरू को मोहित करते हुए अमर होने के लिए अपनी अमर यात्रा प्रारंभ की।
मुज़फ़्फ़रनगर स्थित गंगेरू गाँव की पावन धरा पर विक्रम संवत १९७६ माघ शुक्ला दशमी के मंगलमय दिन माता पिता एवं
परिवार के साथ गुरूवरों के आशीर्वाद एवं हज़ारों भाई बहनों की शुभकामनाओं के साथ तेजस्वी किशोर"अमर सिंह" प्रव्रजित
होकर " अमर मुनि " बन गया।श्वेत परिधान में उनकी मुखाकृति अद्भुत तेज से तेजोमय हो उठी।अब अध्ययन का क्रम और तेज
हो गया।अनेक शास्त्र एक के बाद एक कण्ठस्थ कर लिए,किन्तु साहित्य तथा भाषा के संबन्ध में अध्ययन नहीं हुआ था ।
अत:किशोर अवस्था में संन्यास लेकर क्रान्ति का शंखनाद किया।प्रचलित परम्परा को पार करके संस्कृत पाठशाला में जाकर
संस्कृत भाषा का अध्ययन किया ।साम्प्रदायिकता के विद्वेष को ख़त्म करने के लिए सादड़ी भीनासर,सोजत अजमेर आदि
क्षेत्रों में सम्मेलनों का आयोजन कराकर साम्प्रदायों का विलीनीकरण किया।उपेक्षित साध्वी-वर्ग,महिलाओं बालिकाओं की
शिक्षा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया ।
वर्ष १९५० में स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा़़.राजेन्द्र प्रासाद ने गुरूदेव को राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित किया था।दो घण्टे तक
अहिंसा के व्यावहारिक रूप,बिहार की गौरवमयी परम्परा,भारतीय इतिहास आदि विषयों पर गम्भीर चर्चा हुई।वर्ष १९७० में
दीक्षा-स्वर्ण जयंति समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्रद्धा- भाव अर्पण करते हुए उन्हे "राष्टसंत" की
उपाधि से अलंकृत किया ।
मातृजाति के उत्थान एवं स्त्री-शिक्षा के लिए उदात्त दृष्टिकोण रहा।स्त्री -शक्ति का सम्मान केवल प्रवचन लेखन तक ही सीमित न
था,अपितु गौरव गरिमा हेतु सक्रिय रचनात्मक क़दम भी उठाए ।गुरूदेव ने वह कार्य किया,जो पिछले २५ शताब्दियों में नहीं हुआ ।इतिहास का नया अध्याय ही है कि साध्वी चन्दनाश्रीजी का उनकी ज्ञान,कर्म एवं करूणा की तेजस्वी सृजनशील शक्ति
एवं जनमंगल के कार्यों का सम्मान करते हुए,आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।आचार्य श्री चन्दनाश्रीजी के क्रान्तिकारी विचारों
एवं कर्मक्षेत्र "वीरायतन" के लिए उन्होंने मुक्तमन से आशीर्वाद बरसाये और स्वयं बर्ष १९७४ में क्षेत्रीय सुविधाओं को छोड़कर
राजगृही आए। महावीर एवं बुद्ध की तीर्थ भूमि राजगृही का यह वैभारगिरि पर्वत,सप्तपर्णी गुफ़ा पूज्य गुरूदेव के १९ वर्ष के ज्ञान
तप- साधना से तपोपूत पावन है।यहाँ का कण कण आपके जीवन का संगान कर रहा है। प्रणम्य चरणों में प्रणाम करते हुए जून
१९९१ के सू्र्यास्त के समय गुरू की उस प्रकाशपू्र्ण देह- ज्योति को अपने में समा लिया है और आज वे सब हमें पूज्य गुरूदेव
की विश्वशान्ति हेतु आशीर्वाद बरसाती ज्ञान-रश्मियों को प्रसारित करती मुद्राओं में तरंगायित होते हुए उनकी अनुभूति कराते हैं।
हम चरण स्पर्श करते हैं और उनके आशीर्वाद के वरदहस्त का दिव्य स्पर्श पाते हैं ।पूज्य गुरूदेव का जीवन साहित्यिक सृजन-
शीलता से तन्मय जीवन रहा है ।वे निष्काम मनस्वी संत,महान चिन्तक और महान साहित्यकार रहे।प्राचीन तीनों धर्म परम्पराओं
के मूल स्रो्त आगम,त्रिपिटक और वेदों से अनुप्राणित हो उन्होने अपनी लेखनी को नई दिशा दी ।पूज्य गुरूदेव राष्टसंत उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज जिन्हें पाकर बीसवीं सदी में जैन परम्परा के नवजागरण का नया सोपान धन्य और कृतकृत्य हुआ।अनिर्वचनीय है यह सब! हे प्रणम्य !कोटिश:प्रणाम ! हे वन्दनीय ! अहर्निश वन्दन !
आभार उपाध्याय साध्वी यशा जी ।
Friday, 7 June 2013
आज की दुनिया-------
जब अलविदा हो,हिन्द से इन्साफ जन्नत को गये ,
मखलूक़ की इम्दाद करने,तीन बेटे रह गए !
सबसे बड़े रिसवतअली, मझले शिफारिसखान हैं ,
छोटे खुशामतवेग हैं, जिनकी निराली शान है !
हरबसर की कामयाबी, बस इन्हीं के साथ है। ,
हर मुसीबत दूर रहती, जिनपे इनका हाथ है !
क़त्ल के जु्र्म में भी, रिसवतअली की जीत है ,
सख्त हाकिम मौम हो जाता, उसी की जीत है !
खुशामत गोदी में ले, पुचकार----------------
जी हजूरी सीखले , फिर चाहे जो व्यापार कर !!
मखलूक़ की इम्दाद करने,तीन बेटे रह गए !
सबसे बड़े रिसवतअली, मझले शिफारिसखान हैं ,
छोटे खुशामतवेग हैं, जिनकी निराली शान है !
हरबसर की कामयाबी, बस इन्हीं के साथ है। ,
हर मुसीबत दूर रहती, जिनपे इनका हाथ है !
क़त्ल के जु्र्म में भी, रिसवतअली की जीत है ,
सख्त हाकिम मौम हो जाता, उसी की जीत है !
खुशामत गोदी में ले, पुचकार----------------
जी हजूरी सीखले , फिर चाहे जो व्यापार कर !!
Tuesday, 28 May 2013
Friday, 24 May 2013
Wednesday, 17 April 2013
आज का मानव-----------
मानव का केवल इस संसार में ही नहीं ,बल्कि पूरे ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ स्थान है ।इसीलिये मानव को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सबसे
अधिक तीव्र बुद्धिशाली जीव माना जाता है ।अत: इसी मानव जीवन को प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े देवी देवता लालायित रहते
हैं । इसीलिए एक ग्रीक दार्शनिक विद्वान ने कहा था कि--"मनुष्य एक विवेकशील एवं बुद्धिशाली जानवर है" यानी मानव और
जानवर में केवल विवेक एवं बुद्धि का ही अन्तर है। अत: अगर मानव में विवेक बुद्धि न हो तो वह जानवर के ही दर्जे में ही गिना
जायेगा ।
आज का मानव अपनी प्रखर बुद्धि के बल से प्रकृति के प्रकोपों की आहट पहचानने में सक्षम हो गया हैं।मानव ने इस संसार की
सभी भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त कर लिया है । आज वह अपनी प्रखर बु््द्धि के बल पर आसमान में पक्षियों के समान
उड़ने का आनन्द ले रहा है एवं मछलियों की तरह समुद्र के अथाह जल में तेर रहा है।यह मानव इतना ही नहीं ,बल्कि आसमान
को स्पर्श करने एवं चाँद,सितारों पर अपना आशियाना बनाने का प्रयास कर रहा है।इस चित्र में वैज्ञानिक मानव चन्द्रमा पर
लगभग ३४ किलोमीटर की यात्रा करके,सन्तरे के रंग की मिट्टी का नमूना ले रहा है। धन्य है मानव आज तूने उन्नति के शिखर
की चरम सीमा प्राप्त कर ली है ।
आज का मानव बौद्धिक शक्ति की उन्नति के साथ साथ अपनी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को भूलता जा रहा है ।
इसीलिये प्रतिदिन मानवता का ह्रास होता जा रहा है ।सहानुभूति एवं परोपकारिता की भावना उसके ह्रदय से इस प्रकार
अद्रशय हो रही है,जिस प्रकार कि समुद्र की लहरें तट को स्पर्श कर जल के भीतर अद्रशय हो जाती हैं ।
आज का मानव अपना भौतिक एवं सांसारिक अस्तित्व क़ायम करने के लिये,दूसरे मानव के रक्त को चूसने में ज़रा भी नहीं
हिचकता ।इसीलिये निम्नलिखित कथन सत्य प्रतीत होता है कि:-
"सोने के यह महल खड़े हैं,मिट्टी का ही सीना चीर "
अत: संसार में चारों ओर अराजकता एवं निराशा का वातावरण छाता जा रहा है ।इसी अराजकता एवं निराशा के वातावरण को
समाप्त करने के लिये,हमारी इस भारत भूमि या संसार में कोई न कोई महा मानव अवतार के रूप में पैदा होते रहे हैं ।आज से
२६१२ वर्ष पूर्व घोर मानवता के ह्रास के समय भारत की इसी पवित्र भूमि पर अहिंसा एवं करूणा के अवतार भगवान महावीर एवं गौतम स्वामी जी ने अवतार लिया एवं मानवता के पतन को बचाया था ।
किन्तु आज का मानव फिर पतनोन्मुख हो रहा है और इसी पतन को रोकने के लिये आज के इस युग में महात्मा गांधी जैसी
विभूति ने अपने प्राणों तक की आहुति दे दी थी ,फिर भी मानव अपने मानवीय मूल्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पा रहा है। इसीलिये सर्वपल्ली राधाकृष्णन का निम्न कथन सत्य प्रतीत हो रहा है कि:- " आज का मानव आकाश में चिड़ियों की तरह
उड़ सकता है,पानी के अन्दर प्रवेश कर मछलियों की तरह तैर सकता है,किन्तु दुख है कि आज का मानव ज़मीन पर चलना
भूलता जारहा है ।
अधिक तीव्र बुद्धिशाली जीव माना जाता है ।अत: इसी मानव जीवन को प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े देवी देवता लालायित रहते
हैं । इसीलिए एक ग्रीक दार्शनिक विद्वान ने कहा था कि--"मनुष्य एक विवेकशील एवं बुद्धिशाली जानवर है" यानी मानव और
जानवर में केवल विवेक एवं बुद्धि का ही अन्तर है। अत: अगर मानव में विवेक बुद्धि न हो तो वह जानवर के ही दर्जे में ही गिना
जायेगा ।
आज का मानव अपनी प्रखर बुद्धि के बल से प्रकृति के प्रकोपों की आहट पहचानने में सक्षम हो गया हैं।मानव ने इस संसार की
सभी भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त कर लिया है । आज वह अपनी प्रखर बु््द्धि के बल पर आसमान में पक्षियों के समान
उड़ने का आनन्द ले रहा है एवं मछलियों की तरह समुद्र के अथाह जल में तेर रहा है।यह मानव इतना ही नहीं ,बल्कि आसमान
को स्पर्श करने एवं चाँद,सितारों पर अपना आशियाना बनाने का प्रयास कर रहा है।इस चित्र में वैज्ञानिक मानव चन्द्रमा पर
लगभग ३४ किलोमीटर की यात्रा करके,सन्तरे के रंग की मिट्टी का नमूना ले रहा है। धन्य है मानव आज तूने उन्नति के शिखर
की चरम सीमा प्राप्त कर ली है ।
आज का मानव बौद्धिक शक्ति की उन्नति के साथ साथ अपनी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को भूलता जा रहा है ।
इसीलिये प्रतिदिन मानवता का ह्रास होता जा रहा है ।सहानुभूति एवं परोपकारिता की भावना उसके ह्रदय से इस प्रकार
अद्रशय हो रही है,जिस प्रकार कि समुद्र की लहरें तट को स्पर्श कर जल के भीतर अद्रशय हो जाती हैं ।
आज का मानव अपना भौतिक एवं सांसारिक अस्तित्व क़ायम करने के लिये,दूसरे मानव के रक्त को चूसने में ज़रा भी नहीं
हिचकता ।इसीलिये निम्नलिखित कथन सत्य प्रतीत होता है कि:-
"सोने के यह महल खड़े हैं,मिट्टी का ही सीना चीर "
अत: संसार में चारों ओर अराजकता एवं निराशा का वातावरण छाता जा रहा है ।इसी अराजकता एवं निराशा के वातावरण को
समाप्त करने के लिये,हमारी इस भारत भूमि या संसार में कोई न कोई महा मानव अवतार के रूप में पैदा होते रहे हैं ।आज से
२६१२ वर्ष पूर्व घोर मानवता के ह्रास के समय भारत की इसी पवित्र भूमि पर अहिंसा एवं करूणा के अवतार भगवान महावीर एवं गौतम स्वामी जी ने अवतार लिया एवं मानवता के पतन को बचाया था ।
किन्तु आज का मानव फिर पतनोन्मुख हो रहा है और इसी पतन को रोकने के लिये आज के इस युग में महात्मा गांधी जैसी
विभूति ने अपने प्राणों तक की आहुति दे दी थी ,फिर भी मानव अपने मानवीय मूल्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पा रहा है। इसीलिये सर्वपल्ली राधाकृष्णन का निम्न कथन सत्य प्रतीत हो रहा है कि:- " आज का मानव आकाश में चिड़ियों की तरह
उड़ सकता है,पानी के अन्दर प्रवेश कर मछलियों की तरह तैर सकता है,किन्तु दुख है कि आज का मानव ज़मीन पर चलना
भूलता जारहा है ।
Wednesday, 10 April 2013
मंगल - धुन ----------
ओम गुरू ओम गुरू ओम गुरू गुरूदेव।- जय गुरू जयगुरू जय गुरूदेव ।
देव हमारा श्री अरिहन्द। - गुरू हमारा सद गुणी सन्त ।।
भयहर भयहर भज भगवान ।-सुर नर मुनिवर धरत हैं ध्यान ।।
सहजानन्दी शुद्ध स्वरूप ।- अविनासी में आत्म-स्वरूप ।।
श्रृषभ जय जय प्रभु पार्श्वव जय जय ।-महावीर जय गुरू गौतम जय जय ।।
देव हमारा श्री अरिहन्द। - गुरू हमारा सद गुणी सन्त ।।
भयहर भयहर भज भगवान ।-सुर नर मुनिवर धरत हैं ध्यान ।।
सहजानन्दी शुद्ध स्वरूप ।- अविनासी में आत्म-स्वरूप ।।
श्रृषभ जय जय प्रभु पार्श्वव जय जय ।-महावीर जय गुरू गौतम जय जय ।।
Sunday, 7 April 2013
Jain Swatamber Temple of Kanpur ( popularly known as Kanch ka Mandir )
Kanch ka Mandir belonging to Jain religion is famous for its culture and art . It is fully made with glass pieces . It is situated it many parts of India and one of them is in the industrial town of uttar Pradesh known as Kanpur , back of kamla tower . Tourist specially visit Kanpur just to get a glimpse of it .
Wednesday, 27 March 2013
भारतबर्ष में गुरू- शिष्य परम्परा ------
हमारे भारतबर्ष में गुरू- शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा आज की नहीं ,वह तो अनादि है,अनन्त है । मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब गुरूओं की सहज कृपा का ही फल है । इसी सन्दर्भ में ,मैं आपके सामने चार पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूॅ ।
"युग व्यतीत कर आज तुम्हारी गुरूबर । याद जगी है ।
याद करूं सामीप्य तुम्हारा, यही चाह उगी है ।।
गुरू-पद आश्रित जन को,बिष भी देता चिर जीवन है ।
पाकर गुरू पद- धूलि, पतित भी बनती पुण्य - सदन है ।।"
निष्कर्ष यह है कि निर्माण के लिए सर्वत्र प्रहार की आवश्यकता रहती है। प्रहार के बिना निर्माण नहीं होता । गुरू कुम्भकार की
तरह शिष्य को गड़ने के लिए एक ओर प्रहार करता है,दूसरी ओर उसे जोड़ने के लिए हाथ रखता है। व्यक्तित्व के गढ़ने और
उसमें निखार लाने में गुरू की छैनी महत्वपूर्ण कारक होती है । प्रत्येक गुरू अपने शिष्य पर चोट लगाता है । सोने पर चोट
लगती है, तभी उसमें अदभुत निखार आता है । चोट लगने पर ही सोना चमकता है। इसी प्रकार शिष्य भी गुरू की चोट खाकर
चमक उठता है ।
गुरूवर ! मेरी अरस कहानी है, कौन सुनने को ?
किसे समय है , दुखी प्राण के गड़े शूल चुनने को ,
तुम्ही दया के धाम, तुम्ही से प्यार पतित हो मिलता,
पा करूणा कण ' अमर मुनि ' का विहँसता-खिलता !
सच्चा शिष्य वह होता है,जो गुरू के दिये हुए बोध को संजोकर सुरक्षित रखता है ।जब से वह गुरू के चरणों में आता है,तभी से
कुछ न कुछ लेता ही रहता है।गुरू देने में कोई कमी नहीं रखता । यह शिष्य पर निर्भर करता है कि उसके ग्रहण करने का ह्रदय-
पात्र कितना निशिछद्र है। सद्गगुरू की कृपादृष्टि से असम्भव भी सम्भव है । और इस जीवन में मंगल ही मंगल होता है ।में भी अपने पूज्य गुरूऔं के चरणों में शुभ संकल्प के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
"युग व्यतीत कर आज तुम्हारी गुरूबर । याद जगी है ।
याद करूं सामीप्य तुम्हारा, यही चाह उगी है ।।
गुरू-पद आश्रित जन को,बिष भी देता चिर जीवन है ।
पाकर गुरू पद- धूलि, पतित भी बनती पुण्य - सदन है ।।"
निष्कर्ष यह है कि निर्माण के लिए सर्वत्र प्रहार की आवश्यकता रहती है। प्रहार के बिना निर्माण नहीं होता । गुरू कुम्भकार की
तरह शिष्य को गड़ने के लिए एक ओर प्रहार करता है,दूसरी ओर उसे जोड़ने के लिए हाथ रखता है। व्यक्तित्व के गढ़ने और
उसमें निखार लाने में गुरू की छैनी महत्वपूर्ण कारक होती है । प्रत्येक गुरू अपने शिष्य पर चोट लगाता है । सोने पर चोट
लगती है, तभी उसमें अदभुत निखार आता है । चोट लगने पर ही सोना चमकता है। इसी प्रकार शिष्य भी गुरू की चोट खाकर
चमक उठता है ।
गुरूवर ! मेरी अरस कहानी है, कौन सुनने को ?
किसे समय है , दुखी प्राण के गड़े शूल चुनने को ,
तुम्ही दया के धाम, तुम्ही से प्यार पतित हो मिलता,
पा करूणा कण ' अमर मुनि ' का विहँसता-खिलता !
सच्चा शिष्य वह होता है,जो गुरू के दिये हुए बोध को संजोकर सुरक्षित रखता है ।जब से वह गुरू के चरणों में आता है,तभी से
कुछ न कुछ लेता ही रहता है।गुरू देने में कोई कमी नहीं रखता । यह शिष्य पर निर्भर करता है कि उसके ग्रहण करने का ह्रदय-
पात्र कितना निशिछद्र है। सद्गगुरू की कृपादृष्टि से असम्भव भी सम्भव है । और इस जीवन में मंगल ही मंगल होता है ।में भी अपने पूज्य गुरूऔं के चरणों में शुभ संकल्प के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
Tuesday, 26 March 2013
नवकार मंन्र --- समस्त जैन धर्मावलंबियों का मुख्य मंन्र ।
णमोकार महामंत्र एक लोकोतर मंन्र है । इस मंन्तर को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंन्तर माना जाता है। इसमें
किसी व्यक्ति का नहीं ,किन्तु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन,स्मरण,चिन्तन,ध्यान
एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंन्र है ।
लौकिक मन्त्र आदि सिर्फ़ लौकिक लाभ पहँुचाते हैं, किन्तु लोकोतर मंन्र लौकिक और लोकोतर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं ।
इसलिए णमोकार मंन्र सर्वकार्य सिद्धकारक लोकोतर मंन्र माना जाता है ।
णमोकार- स्मरण से अनेक लोगों के रोग,दरिद्रता,भय,विपत्तियाँ दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएँ सुनी जाती हैं । मन चाहे
काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुनें हैं । अत: यह निश्चित रूप में माना जाता सकता है कि णमोकार मंन्र हमें जीवन
की समस्याओं, कठिनाइयों ,चिंन्ताओं, बाधाओं से पार पहुँचाने में सबसे बड़ा आत्मसहायक है । इसलिए इस मंन्र का नियमित
जाप करना बताया गया है ।
इस महामन्त्र को जैन धर्म के अनुसार सबसे प्रभावशाली माना जाता है ।ये पाँच परमेष्टी हैं ।इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध
भावपूर्वक किया गया,यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने बाला है । संसार में सबसे उत्तम मंगल है । इस मंन्र के
प्रथम पाँच पदों में ३५ अक्षर और शेष दो पदों में ३३ अक्षर हैं । इसतरह कुल ६८ अक्षरों का यह महामन्त्र समस्त कार्यों को
सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मन्त्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
सबसे बढ़कर है नवकार,करता है भवसागर पार ।
चौदह पूरब का यह सार, बारम्बार जपो नवकार ।।
किसी व्यक्ति का नहीं ,किन्तु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन,स्मरण,चिन्तन,ध्यान
एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंन्र है ।
लौकिक मन्त्र आदि सिर्फ़ लौकिक लाभ पहँुचाते हैं, किन्तु लोकोतर मंन्र लौकिक और लोकोतर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं ।
इसलिए णमोकार मंन्र सर्वकार्य सिद्धकारक लोकोतर मंन्र माना जाता है ।
णमोकार- स्मरण से अनेक लोगों के रोग,दरिद्रता,भय,विपत्तियाँ दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएँ सुनी जाती हैं । मन चाहे
काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुनें हैं । अत: यह निश्चित रूप में माना जाता सकता है कि णमोकार मंन्र हमें जीवन
की समस्याओं, कठिनाइयों ,चिंन्ताओं, बाधाओं से पार पहुँचाने में सबसे बड़ा आत्मसहायक है । इसलिए इस मंन्र का नियमित
जाप करना बताया गया है ।
इस महामन्त्र को जैन धर्म के अनुसार सबसे प्रभावशाली माना जाता है ।ये पाँच परमेष्टी हैं ।इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध
भावपूर्वक किया गया,यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने बाला है । संसार में सबसे उत्तम मंगल है । इस मंन्र के
प्रथम पाँच पदों में ३५ अक्षर और शेष दो पदों में ३३ अक्षर हैं । इसतरह कुल ६८ अक्षरों का यह महामन्त्र समस्त कार्यों को
सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मन्त्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
सबसे बढ़कर है नवकार,करता है भवसागर पार ।
चौदह पूरब का यह सार, बारम्बार जपो नवकार ।।
Wednesday, 20 March 2013
Know Jainism .
Jainism is the oldest religion of India and its origin lies in India. Jainism is not a religion, it is a way of living life.Jain religion is based on the assumption that every being is creator of his own action and himself consumes the fruits of his action .The practice of Rright Belief , Right Knowledge and Right Conduct lead the devotee or worshipper to the right path and ultimate salvation. It bows to five Supreme Benefactors,known as ( पंच परमेष्टी ) १.अरिहन्त Conqureor of Enimy,Arihant win over all evils of mankind like (काम,क्रोध ,मान,माया लोभ ) २. सिद्ध After achieving full emancipation ,soul become liberated. 3. आचार्य Who having mastered the sacred scriptures. ४.उपाध्याय Who having mastered the sacred scriptures and teach them to Saints andNuns in the Sangh. 5.सर्व साधु Who after renouncing the world and follow the path of salvation,live in jungles either in Sangh or alone eat food and drink water only ones a day. The rituals of bowing to these five Supreme Benefactors is called Namokar Mantra (नमस्कार मंन्र)This is the single biggest ritual in the Jain Philosophy and considered to be most sacred and if pounced with pure mind and words,is the cause of leading meritorious life. It contains 35 letters. Jainism also has Five small Vows ( पाँच अणुव्रत ) १. Non- violence ( अहिंसा ) २. Truthfulness (सत्य )। ३. Non- Stealing ( अचौर्य ) ४. Chastity ( ब्रह्मचर्य ) ५. Non- Possession ( अपरिग्रह )।
Tuesday, 19 March 2013
जैन दर्शन मतानुसार स्यादवाद -------------
जैन मतानुसार किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं ।मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है।वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही जैन दर्शन में नय कहलाता है । नय
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
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