Wednesday, 27 March 2013

भारतबर्ष में गुरू- शिष्य परम्परा ------

हमारे भारतबर्ष में गुरू- शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा आज की नहीं ,वह तो अनादि है,अनन्त है । मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब गुरूओं की सहज कृपा का ही फल है । इसी सन्दर्भ में ,मैं आपके सामने चार पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूॅ ।
"युग व्यतीत कर आज तुम्हारी गुरूबर । याद जगी है ।
याद करूं सामीप्य तुम्हारा, यही चाह उगी है ।।
गुरू-पद आश्रित जन को,बिष भी देता चिर जीवन है ।
पाकर गुरू पद- धूलि, पतित भी बनती पुण्य - सदन है ।।"
निष्कर्ष यह है कि निर्माण के लिए सर्वत्र प्रहार की आवश्यकता रहती है। प्रहार के बिना निर्माण नहीं होता । गुरू कुम्भकार की
तरह शिष्य को गड़ने के लिए एक ओर प्रहार करता है,दूसरी ओर उसे जोड़ने के लिए हाथ रखता है। व्यक्तित्व के गढ़ने और
उसमें निखार लाने में गुरू की छैनी महत्वपूर्ण कारक होती है । प्रत्येक गुरू अपने शिष्य पर चोट लगाता है । सोने पर चोट
लगती है, तभी उसमें अदभुत निखार आता है । चोट लगने पर ही सोना चमकता है। इसी प्रकार शिष्य भी गुरू की चोट खाकर
चमक उठता है ।
गुरूवर ! मेरी अरस कहानी है, कौन सुनने को ?
किसे समय है , दुखी प्राण के गड़े शूल चुनने को ,
तुम्ही दया के धाम, तुम्ही से प्यार पतित हो मिलता,
पा करूणा कण ' अमर मुनि ' का विहँसता-खिलता !
सच्चा शिष्य वह होता है,जो गुरू के दिये हुए बोध को संजोकर सुरक्षित रखता है ।जब से वह गुरू के चरणों में आता है,तभी से
कुछ न कुछ लेता ही रहता है।गुरू देने में कोई कमी नहीं रखता । यह शिष्य पर निर्भर करता है कि उसके ग्रहण करने का ह्रदय-
पात्र कितना निशिछद्र है। सद्गगुरू की कृपादृष्टि से असम्भव भी सम्भव है । और इस जीवन में मंगल ही मंगल होता है ।में भी अपने पूज्य गुरूऔं के चरणों में शुभ संकल्प के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।

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