Wednesday, 10 July 2013

प्रात: स्मरणीय ब्रह्मनिष्ट पूज्यपाद राष्टसंत श्रद्धेय गुरूदेव अमरमुनि जी का परिचय:-

हरियाणा राज्य के नारनौल जनपद में "गोधा" एक छोटा सा सुन्दर गाँव है।इस पावन भूमि "गोधा" में पूज्य गुरूदेव
उपाध्याय अमरमुनि महाराज का जन्म सन १९०३ई. शरद् पूर्णिमा को हुआ था।आपके माता पिता धार्मिक प्रवृति के,सदाचार
एवं सुसंस्कार के अाग्रही,साधु सन्तो के प्रति अपूर्व श्रद्धा भाव से समर्पित रहे। माता पिता के धर्मपरायणता और सदगुणों का
गहरा प्रभाव बालक अमरसिंह पर पड़ा।
नारनौल सनातन धर्मावलम्बियों तथा आर्य समाज का प्रमुख केन्द्र था। जैन संत भी यदा कदा आया करते थे।संयोग से
एक बार पूज्य श्री मोतीराम जी महाराज (दादा गुरू) और जैन संत पूज्य पृथ्वीचन्द्र जी महाराज (गुरू)नारनौल पधारे।बालक
अमर सिंह अपने पिता जी के साथ महाराजश्री के दर्शनार्थ आये ।भविष्यदर्शी पूज्य मोतीराम जी महाराज बालक के दिव्य
आभामंडल से अभिभूत हुए। उन्होंने पिता श्री लाल सिंह जी से कहा- इस दिव्य ज्योति ने विश्व कल्याण हेतु जन्म लिया है ।
नररत्न पारखी मुनिद्व़य के श्री चरणों में पिता ने बालक को अर्पण किया ।बालक अमर ने अपने सदव्यवहार,अपनी ज्ञान पिपासा,
अपनी निश्छल मंत्र-मुग्ध वाणी से गुरू एवं दादा गुरू को मोहित करते हुए अमर होने के लिए अपनी अमर यात्रा प्रारंभ की।
मुज़फ़्फ़रनगर स्थित गंगेरू गाँव की पावन धरा पर विक्रम संवत १९७६ माघ शुक्ला दशमी के मंगलमय दिन माता पिता एवं
परिवार के साथ गुरूवरों के आशीर्वाद एवं हज़ारों भाई बहनों की शुभकामनाओं के साथ तेजस्वी किशोर"अमर सिंह" प्रव्रजित
होकर " अमर मुनि " बन गया।श्वेत परिधान में उनकी मुखाकृति अद्भुत तेज से तेजोमय हो उठी।अब अध्ययन का क्रम और तेज
हो गया।अनेक शास्त्र एक के बाद एक कण्ठस्थ कर लिए,किन्तु साहित्य तथा भाषा के संबन्ध में अध्ययन नहीं हुआ था ।
अत:किशोर अवस्था में संन्यास लेकर क्रान्ति का शंखनाद किया।प्रचलित परम्परा को पार करके संस्कृत पाठशाला में जाकर
संस्कृत भाषा का अध्ययन किया ।साम्प्रदायिकता के विद्वेष को ख़त्म करने के लिए सादड़ी भीनासर,सोजत अजमेर आदि
क्षेत्रों में सम्मेलनों का आयोजन कराकर साम्प्रदायों का विलीनीकरण किया।उपेक्षित साध्वी-वर्ग,महिलाओं बालिकाओं की
शिक्षा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया ।
वर्ष १९५० में स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा़़.राजेन्द्र प्रासाद ने गुरूदेव को राष्ट्रपति भवन में आमन्त्रित किया था।दो घण्टे तक
अहिंसा के व्यावहारिक रूप,बिहार की गौरवमयी परम्परा,भारतीय इतिहास आदि विषयों पर गम्भीर चर्चा हुई।वर्ष १९७० में
दीक्षा-स्वर्ण जयंति समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने श्रद्धा- भाव अर्पण करते हुए उन्हे "राष्टसंत" की
उपाधि से अलंकृत किया ।
मातृजाति के उत्थान एवं स्त्री-शिक्षा के लिए उदात्त दृष्टिकोण रहा।स्त्री -शक्ति का सम्मान केवल प्रवचन लेखन तक ही सीमित न
था,अपितु गौरव गरिमा हेतु सक्रिय रचनात्मक क़दम भी उठाए ।गुरूदेव ने वह कार्य किया,जो पिछले २५ शताब्दियों में नहीं हुआ ।इतिहास का नया अध्याय ही है कि साध्वी चन्दनाश्रीजी का उनकी ज्ञान,कर्म एवं करूणा की तेजस्वी सृजनशील शक्ति
एवं जनमंगल के कार्यों का सम्मान करते हुए,आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।आचार्य श्री चन्दनाश्रीजी के क्रान्तिकारी विचारों
एवं कर्मक्षेत्र "वीरायतन" के लिए उन्होंने मुक्तमन से आशीर्वाद बरसाये और स्वयं बर्ष १९७४ में क्षेत्रीय सुविधाओं को छोड़कर
राजगृही आए। महावीर एवं बुद्ध की तीर्थ भूमि राजगृही का यह वैभारगिरि पर्वत,सप्तपर्णी गुफ़ा पूज्य गुरूदेव के १९ वर्ष के ज्ञान
तप- साधना से तपोपूत पावन है।यहाँ का कण कण आपके जीवन का संगान कर रहा है। प्रणम्य चरणों में प्रणाम करते हुए जून
१९९१ के सू्र्यास्त के समय गुरू की उस प्रकाशपू्र्ण देह- ज्योति को अपने में समा लिया है और आज वे सब हमें पूज्य गुरूदेव
की विश्वशान्ति हेतु आशीर्वाद बरसाती ज्ञान-रश्मियों को प्रसारित करती मुद्राओं में तरंगायित होते हुए उनकी अनुभूति कराते हैं।
हम चरण स्पर्श करते हैं और उनके आशीर्वाद के वरदहस्त का दिव्य स्पर्श पाते हैं ।पूज्य गुरूदेव का जीवन साहित्यिक सृजन-
शीलता से तन्मय जीवन रहा है ।वे निष्काम मनस्वी संत,महान चिन्तक और महान साहित्यकार रहे।प्राचीन तीनों धर्म परम्पराओं
के मूल स्रो्त आगम,त्रिपिटक और वेदों से अनुप्राणित हो उन्होने अपनी लेखनी को नई दिशा दी ।पूज्य गुरूदेव राष्टसंत उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज जिन्हें पाकर बीसवीं सदी में जैन परम्परा के नवजागरण का नया सोपान धन्य और कृतकृत्य हुआ।अनिर्वचनीय है यह सब! हे प्रणम्य !कोटिश:प्रणाम ! हे वन्दनीय ! अहर्निश वन्दन !
आभार उपाध्याय साध्वी यशा जी ।











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