जैन मतानुसार किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं ।मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है।वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही जैन दर्शन में नय कहलाता है । नय
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
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