हमारे भारतबर्ष में गुरू- शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा आज की नहीं ,वह तो अनादि है,अनन्त है । मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब गुरूओं की सहज कृपा का ही फल है । इसी सन्दर्भ में ,मैं आपके सामने चार पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूॅ ।
"युग व्यतीत कर आज तुम्हारी गुरूबर । याद जगी है ।
याद करूं सामीप्य तुम्हारा, यही चाह उगी है ।।
गुरू-पद आश्रित जन को,बिष भी देता चिर जीवन है ।
पाकर गुरू पद- धूलि, पतित भी बनती पुण्य - सदन है ।।"
निष्कर्ष यह है कि निर्माण के लिए सर्वत्र प्रहार की आवश्यकता रहती है। प्रहार के बिना निर्माण नहीं होता । गुरू कुम्भकार की
तरह शिष्य को गड़ने के लिए एक ओर प्रहार करता है,दूसरी ओर उसे जोड़ने के लिए हाथ रखता है। व्यक्तित्व के गढ़ने और
उसमें निखार लाने में गुरू की छैनी महत्वपूर्ण कारक होती है । प्रत्येक गुरू अपने शिष्य पर चोट लगाता है । सोने पर चोट
लगती है, तभी उसमें अदभुत निखार आता है । चोट लगने पर ही सोना चमकता है। इसी प्रकार शिष्य भी गुरू की चोट खाकर
चमक उठता है ।
गुरूवर ! मेरी अरस कहानी है, कौन सुनने को ?
किसे समय है , दुखी प्राण के गड़े शूल चुनने को ,
तुम्ही दया के धाम, तुम्ही से प्यार पतित हो मिलता,
पा करूणा कण ' अमर मुनि ' का विहँसता-खिलता !
सच्चा शिष्य वह होता है,जो गुरू के दिये हुए बोध को संजोकर सुरक्षित रखता है ।जब से वह गुरू के चरणों में आता है,तभी से
कुछ न कुछ लेता ही रहता है।गुरू देने में कोई कमी नहीं रखता । यह शिष्य पर निर्भर करता है कि उसके ग्रहण करने का ह्रदय-
पात्र कितना निशिछद्र है। सद्गगुरू की कृपादृष्टि से असम्भव भी सम्भव है । और इस जीवन में मंगल ही मंगल होता है ।में भी अपने पूज्य गुरूऔं के चरणों में शुभ संकल्प के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
Wednesday, 27 March 2013
Tuesday, 26 March 2013
नवकार मंन्र --- समस्त जैन धर्मावलंबियों का मुख्य मंन्र ।
णमोकार महामंत्र एक लोकोतर मंन्र है । इस मंन्तर को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंन्तर माना जाता है। इसमें
किसी व्यक्ति का नहीं ,किन्तु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन,स्मरण,चिन्तन,ध्यान
एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंन्र है ।
लौकिक मन्त्र आदि सिर्फ़ लौकिक लाभ पहँुचाते हैं, किन्तु लोकोतर मंन्र लौकिक और लोकोतर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं ।
इसलिए णमोकार मंन्र सर्वकार्य सिद्धकारक लोकोतर मंन्र माना जाता है ।
णमोकार- स्मरण से अनेक लोगों के रोग,दरिद्रता,भय,विपत्तियाँ दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएँ सुनी जाती हैं । मन चाहे
काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुनें हैं । अत: यह निश्चित रूप में माना जाता सकता है कि णमोकार मंन्र हमें जीवन
की समस्याओं, कठिनाइयों ,चिंन्ताओं, बाधाओं से पार पहुँचाने में सबसे बड़ा आत्मसहायक है । इसलिए इस मंन्र का नियमित
जाप करना बताया गया है ।
इस महामन्त्र को जैन धर्म के अनुसार सबसे प्रभावशाली माना जाता है ।ये पाँच परमेष्टी हैं ।इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध
भावपूर्वक किया गया,यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने बाला है । संसार में सबसे उत्तम मंगल है । इस मंन्र के
प्रथम पाँच पदों में ३५ अक्षर और शेष दो पदों में ३३ अक्षर हैं । इसतरह कुल ६८ अक्षरों का यह महामन्त्र समस्त कार्यों को
सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मन्त्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
सबसे बढ़कर है नवकार,करता है भवसागर पार ।
चौदह पूरब का यह सार, बारम्बार जपो नवकार ।।
किसी व्यक्ति का नहीं ,किन्तु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन,स्मरण,चिन्तन,ध्यान
एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंन्र है ।
लौकिक मन्त्र आदि सिर्फ़ लौकिक लाभ पहँुचाते हैं, किन्तु लोकोतर मंन्र लौकिक और लोकोतर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं ।
इसलिए णमोकार मंन्र सर्वकार्य सिद्धकारक लोकोतर मंन्र माना जाता है ।
णमोकार- स्मरण से अनेक लोगों के रोग,दरिद्रता,भय,विपत्तियाँ दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएँ सुनी जाती हैं । मन चाहे
काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुनें हैं । अत: यह निश्चित रूप में माना जाता सकता है कि णमोकार मंन्र हमें जीवन
की समस्याओं, कठिनाइयों ,चिंन्ताओं, बाधाओं से पार पहुँचाने में सबसे बड़ा आत्मसहायक है । इसलिए इस मंन्र का नियमित
जाप करना बताया गया है ।
इस महामन्त्र को जैन धर्म के अनुसार सबसे प्रभावशाली माना जाता है ।ये पाँच परमेष्टी हैं ।इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध
भावपूर्वक किया गया,यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने बाला है । संसार में सबसे उत्तम मंगल है । इस मंन्र के
प्रथम पाँच पदों में ३५ अक्षर और शेष दो पदों में ३३ अक्षर हैं । इसतरह कुल ६८ अक्षरों का यह महामन्त्र समस्त कार्यों को
सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मन्त्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
सबसे बढ़कर है नवकार,करता है भवसागर पार ।
चौदह पूरब का यह सार, बारम्बार जपो नवकार ।।
Wednesday, 20 March 2013
Know Jainism .
Jainism is the oldest religion of India and its origin lies in India. Jainism is not a religion, it is a way of living life.Jain religion is based on the assumption that every being is creator of his own action and himself consumes the fruits of his action .The practice of Rright Belief , Right Knowledge and Right Conduct lead the devotee or worshipper to the right path and ultimate salvation. It bows to five Supreme Benefactors,known as ( पंच परमेष्टी ) १.अरिहन्त Conqureor of Enimy,Arihant win over all evils of mankind like (काम,क्रोध ,मान,माया लोभ ) २. सिद्ध After achieving full emancipation ,soul become liberated. 3. आचार्य Who having mastered the sacred scriptures. ४.उपाध्याय Who having mastered the sacred scriptures and teach them to Saints andNuns in the Sangh. 5.सर्व साधु Who after renouncing the world and follow the path of salvation,live in jungles either in Sangh or alone eat food and drink water only ones a day. The rituals of bowing to these five Supreme Benefactors is called Namokar Mantra (नमस्कार मंन्र)This is the single biggest ritual in the Jain Philosophy and considered to be most sacred and if pounced with pure mind and words,is the cause of leading meritorious life. It contains 35 letters. Jainism also has Five small Vows ( पाँच अणुव्रत ) १. Non- violence ( अहिंसा ) २. Truthfulness (सत्य )। ३. Non- Stealing ( अचौर्य ) ४. Chastity ( ब्रह्मचर्य ) ५. Non- Possession ( अपरिग्रह )।
Tuesday, 19 March 2013
जैन दर्शन मतानुसार स्यादवाद -------------
जैन मतानुसार किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं ।मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है।वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही जैन दर्शन में नय कहलाता है । नय
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
किसी भी वस्तु के समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं।ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं।
अत: स्यादवाद पदार्थों के जानने की एक दृष्टि मात्र है।स्यादवाद स्वयं अन्तिम सत्य नहीं है।यह हमको अंतिम सत्य तक
पहँुचाने के लिये केवल मार्गदर्शक का काम करता है।
संक्षेप में इस स्यादवाद का निचोड़ यही है,कि सम्पूर्ण संसार को अपनी ही दृष्टि से मत देखो? सत्य उतना ही नहीं ,जितना कि
आप देख पाएे हैं ।जीवन में अपने (कानेपन) एकांगीपन को दूर कीजियेगा । क्योंकि काना व्यक्ति एक ओर के सत्य को ही
देख पाता है ।सत्य का दूसरा पहलू उसकी दृष्टि से अदृष्य हो जाता है
स्यादवाद की दृष्टि से ही दूसरे के कथन के तथ्यों को देखा जा सकता है।और समन्वय का मार्ग अपनाकर पूर्ण सत्य की दिशा
में बढ़ा जा सकता है । अत: जैन दर्शन का स्यादवाद ग्रीस के दार्शनिक सुकरात के निम्नलिखित शब्दों का भी पूर्ण समर्थन
करता है
" हम जितना शास्त्रों का अवलोकन करते है, हमें उतना ही अपनी मूर्खता का अधिकाधिक आभास होता है"
अत: इसीलिये जैन दार्शनिकों का मत है, कि मनुष्य की शक्ति अल्प है और बुद्धि भी बहुत परमित है ।सृष्टि के आरम्भ से
आज तक अनेकानेक श्रृषि- महाश्रृषियों ने तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक प्रकार के नये नये विचारों की खोज़ की, किन्तु फिर भी
हमारी दार्शनिक गुत्थियों आज भी पहले की तरह उलझी हुई हैं ।स्यादवाद यही प्रतिपादित करता है,कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य
नहीं है? अपितु प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म हैं,उन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में एक ही धर्म का ज्ञान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति के दार्शनिकों एवं तत्ववेत्ताओं का कथन है कि जिस प्रकार कई अंधे मनुष्य किसी हाथी के भिन्न भिन्न अवयवों को हाथ से टटोल कर हाथी के उन भिन्न भिन्न अवयवों को ही पूर्ण हाथी समझकर परस्पर लड़ते हैं, ठीक उसी
प्रकार संसार का प्रत्येक दार्शनिक व मनीषी सत्य के केवल अंशमात्र को ही जानता है और सत्य के इस अंशमात्र को ही
सम्पूर्ण सत्य समझकर परस्पर विवाद एवं वितन्डा खड़ा करता है । अत: इसीलिये जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान
महावीर स्वामी जी ने उद्घोष किया था कि यदि संसार के सभी दार्शनिक व मनीषी अपने एकान्त आग्रह को छोड़ कर
अनेकान्त व स्यादवाद दृष्टि से कार्य लेने लगें तो हमारे जीवन के बहुत से प्रश्न और विश्व के सब धर्मों के संकुचित आपसी
विवाद एवं झगड़े अदृष्य ही नहीं हो जायेगे,अपितु एक विश्व धर्म स्थापित करके मानव अपना कल्याण कर सकेगा ।
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