Saturday, 27 June 2020

उवसग्गहरं स्तोत्र

 उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म-घण-मुक्कं ।
विसहर विसनिन्नासं, मंगल-कल्लाण-।आवासं ।१।
विसहर फुलिंगमंतं, कण्ठे धारेई जो सया मणुओ ।
तस्स गह-रोग-मारी दुट्ठ-जरा जंति उवसामं ।२।
चिट्ठउ दूरे मंतो, तुझ पणामो वि बहुफलो होइ ।
नर-तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोहग्गं ।३।
तुह सम्मत्ते लद्धे चिंतामणि-कप्प-पाय वब्भहिए ।
पावंत्ति अविग्घेणं जीवा अयरामरं  ठाणं। ।४।
इह संथुओ महायस ! भत्तिब्भर- निब्भरेण हियएण ।
ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे - भवे पास जिणचंद ।५
                                [   हिन्दी अनुवाद    ]
उपसर्गों को दूर करने वाले कर्म रूपी आवरणों से मुक्त विषों (विकारों) का नाश करने वाले मंगल-कल्याण के केन्द्र
पाशर्वनाथ भगवान की वन्दना करता हूँ ।।१।।
जो मानव, अष्टादश अक्षरों वाले विषहर मंत्र का सदा स्मरण करा है उसके ग्रह- रोग - मारी, दुष्टजन- ज़रा आदि उपशान्त 
रहते हैं ।।२ ।।
मंत्र तो दूर रहो, आपको प्रणाम करने का ही महाफल है। नरक तिर्यंचगति में ही जीव दु:ख नहीं पाता ।।३।।
आपके दर्शन और श्रद्धा की प्राप्ति चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष आदि से भी अधिक महत्वपूर्ण है , जिसके प्रवाह से जीव शीध्र
ही अजरामर स्थान को प्राप्त करता है ।।४ ।।
    हे महायश पाशर्व जिनचन्द्र ! भक्ति रस से लबालब भरे हृदय से में आपकी स्तुति करता हूँ । भव- भव में मुझे सदबोधिकी 
प्राप्ति हो।। ५ ।।
                   

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