ढा रहा है क़हर मेरा शहर,टूट कर बिखर गई इसकी शान।
बड़ी बड़ी मिलों के भोपुओ से दिन रात का होता था ज्ञान।
ढा रहा है क़हर मेरा शहर,यहीं से भारत की स्वतन्त्रता का गूंजा बिगुल से गीत।
बड़ा रहे थे यहाँ की शान,जिन्होंने न तोड़ी अपनी आन।
जिनका नाम याद करके, आँखें होती हैं नम सीना जाता है तन।
ढा रहा है क़हर मेरा शहर,टूटी हैं सड़के आदमी आदमी को कोस रहा लड़ झगड़ के,
रोज़ नई बातें नई खुरा पाते,सोने नहीं देती दर्द भरी राते,ढा रहा है क़हर मेरा शहर।