Tuesday, 31 May 2016

An experience of adventurous trip of San Francisco,CA.

             It a romantic journey by Cal Train to the San Francisco, which is the biggest town of northern 
California,with my grandson Vardhan.

    

Sunday, 15 May 2016

१- अनित्य भावना:---- नश्वरता का बोध-----

                 हे आत्मन्  ! विचार कर जिस प्रकार खिला हुआ फूल मुर्झा जाता है,अन्जिल का जल बूँद-बूँद टपककर समाप्त हो
जाता है। संध्या की लाली अन्धेरे में बदल जाती है।इसी प्रकार यह बचपन,यौवन,शरीर की सुन्दरता,सत्ता  ओर संपत्ति आदि सब कुछ अस्थिर एवं नाशवान है।तू इनसे ममत्व हटा,अविनासी आत्मा का ध्यान कर।
 
               दोहा:--- राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
                           मरना सबको एक दिन,अपनी अपनी बार ।।

२. अशरण भावना :------ 
                  हे आत्मन् ! विचार कर,जब काल रूपी बाज़ झपटता है,तो जीव रूपी कबूतर को दबोचकर ले जाता है। उस समय
ये भवन,धन,संपत्ति,परिवार,सैनिक,सेवक,वैद्ध आदि कोई भी रक्षा नहीं कर सकते।सभी असहाय देखते रह जाते हैं।देख मृत्यु रूपी
सिंह जीव रूपी हिरण को पकड़कर ले जा रहा है।

             दोहा:--- दल बल देवी देवता,मात-पिता परिवार ।
                         मरती बिरिया जीव को,कोई न राखनहार ।।
                   अशरण भावना भाने से जीवन,धन एवं परिजन आदि की असारता का बोध होता है।
३. संसार भावना:---संसार एक प्रकार की नाट्यशाला है।इसके रंगमंच पर प्राणी विभिन्न पात्रों के साथ पिता-पुत्र,पति-पत्नी,भाई-भाई आदि के सम्बन्ध बनाता है,किसी से मेत्री करता है,किसी से दुश्मनी करता है।इस प्रकार तरह-तरह के सम्बन्ध जोड़ता है और
कुछ समय बाद सब अलग-अलग बिछुड़ जाते हैं। 

               दोहा:--- दाम बिना निर्धन दुखी,तृष्णावश धनवान ।
                           कहुँ न सुख संसार में,सब जग देख्यो छान ।।

४. एकत्व भावना:-- एकांगीपन का बोध--- चोरी करने वाला चोर,पकड़े जाने पर अकेला ही मार खाता है।यातना भोगता है।पत्नी,पुत्र,पिता कोई भी उसकी यातना नहीं बँटा सकते।संसार में प्राणी अकेला आता है और अकेला ही जाता है।धन, वैभव,पुत्र,
पत्नी आदि कोई भी उसके साथ नहीं जाते।वह नर्क आदि दुर्गतियों में एकाकी ही अपने किये दुष्कर्मों का फल भोगता है।जिस सोने में मिट्टी होती है,उसे ही अग्नि में बार-बार तपना पड़ता है। उसी प्रकार जो आत्मा पर- भाव में अधिक रचा- पचा रहता है।लोभ आदि
में जो अधिक लिप्त है,उसे उतनी ही अधिक चिन्ता,भय,शोक व कष्ट उठाना पड़ता है।कर्ममल मुक्त आत्मा शुद्ध सोने की भाँति
प्रभास्वर रहता है ।

                दोहा:--- आप अकेला अवतरे,मरे अकेला होय ।
                            यों कबहुँ या जीव को,साथी सगो न कोय ।।